राजपूत-मुगल संधियों पर सवाल उठाना आज के पब्लिक डिस्कोर्स का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है।संधियां और स्ट्रेटेजिक एलायंस एंटीक्विटी काल से ही राजनीति का हिस्सा रहा है। शायद ही ऐसी कोई सभ्यता रही हो जिसने आइसोलेशन में रहकर मोरल और मैटेरियल विकास किया हो। कट्टर से कट्टर दुश्मन तक अपने हितों को साधने के लिए अनेकों बार एक दूसरे की सहायता करने के लिए बाध्य हुए है।
पर चूंकि इस तथाकथित लोकतंत्र की फाउंडेशन ही क्षत्रियों के प्रति नफरत से तैयार हुई अतः राजपूतों द्वारा अपने राष्ट्र एवं प्रजा की रक्षार्थ लिए हुए निर्णयों पर जाहिर सी बात है की सवाल उठने ही थे। आज वीर दुर्गादास आसकर्णोत की जयंती पर मैं एक जरूरी प्वाइंट को एड्रेस कर यह दर्शाना चाहूंगा कि राजपूत मुगल संधियां राजनीतिक स्थिरता के लिए कितनी आवश्यक थी और ये संधियां बराबर के ओहदे के अनुसार की गई थी ना की बादशाह और उसके जूनियर पार्टनर्स के बीच।
महाराजा जसवंत सिंह की पेशावर के पास मृत्यु तथा उसके पश्चात के इतिहास से सभी परिचित है। बालक अजीत सिंह को सकुशल मेवाड़ पहुंचाने के तुरंत बाद राठौड़ों ने केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध एक ओपन विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। राठोड़ों की टुकड़ियां देश में इधर-उधर फैलकर, जहां मुगलों का थाना कमज़ोर देखती, चहां अचानक आक्रमण कर देती। संपूर्ण मारवाड़ में एनार्ची व्याप्त हो चुकी थी। कुछ समय बाद इनायत खां की फौजदारी में मारवाड़ के ये हाल हो गए की स्वयं मुगल सरदार राठौड़ो को आगे से चौथ देने लगे । डीडवाना से लेकर सिवाना तक उपद्रव चरम सीमा तक पहुंच चुका था और मुगलों का सीधा कंट्रोल मात्र जोधपुर शहर तक ही था।
करीब 30 साल तक चला यह राजपूत विद्रोह उत्तर भारत में क्षत्रियों के कंट्रीसाइड में एकाधिकार को दर्शाता है। कहने को भले ही मारवाड़ को खालसा घोषित किया जा चुका था लेकिन जोधपुर शहर छोड़ दिया जाए तो बाकी हिस्से में मुगल राज सिर्फ कागजों में ही था। यही स्थिति मुगलों से पूर्व 1192 से लेकर अगले 350 सालों तक रही। गुलाम वंश के राज के समय दोआब और राजपूताना के क्षत्रिय वंश लगातार केंद्रीय सत्ता से लोहा लेते रहे। Recalcitrant सरदारों के दमन के कुछ महीनों उपरांत ही विद्रोह फिर से शुरू हो जाया करते थे। सेंगर, भदौरिया, चंदेल, बैस, तोमर, चौहान, परमार आदि वंश सैंकड़ों वर्षों तक दिल्ली और बाद में जौनपुर से संघर्षशील रहे। यही हाल राजस्थान में था जहां अगर अलाउद्दीन का समय छोड़ दिया जाए तो तुर्कों का राजस्थान में सीधा कंट्रोल सिर्फ कुछ बड़े कस्बों जैसे अजमेर, नागौर आदि पर ही रहा।
इससे स्पष्ट होता है बिना क्षत्रियों के सहयोग के देश में सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता की कल्पना तक करना असम्भव था। अकबर इस फैक्ट से भली भांति परिचित था अतः अपने राज्यकाल के शुरुआती दौर से ही उसने राजपूतों को as a equal partners in the kingdom treat करना शुरू किया। 712 CE से लेकर 1562 CE यानी करीब 850 साल तक लगातार अरबों, तुर्कोँ और अफगानों से संघर्ष करने के बाद क्षत्रिय mentally और physically exhaust हो चुके थे।
सैंकड़ों वर्षों के इन intermittent battles ने आम जनता पर जो toll ली यह भी जगजाहिर था। आने वाला समय शांति मांग रहा था जिसकी पेशकश स्वयं invading मुगलों द्वारा की गई जिसे स्वीकार कर लिया गया। संधि की शर्तों के अनुसार राजपूत राज्यों को वतन जागीर का दर्जा दिया गया था जिसके तहत वे ऑटोनोमस कैटेगरी में शामिल थे तथा केंद्र का हस्तक्षेप बेहद मामूली था। करीब एक शताब्दी के इस शांतिकाल में व्यापार एवं कृषि में बेजोड़ उन्नति देखने को मिली। राजाओं ने किसानों के सहयोग के लिए कई उत्कृष्ट कार्य किए जिससे खेती में चहुं ओर विकास देखने को मिला। यही वह समय था जब राज्य द्वारा सुरक्षा व्यवस्था कड़ी होने के कारण मारवाड़ी बनियों की प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी हुई और हुंडी सिस्टम की लोकप्रियता के चलते राजस्थान के व्यापारियों का सीधा लिंक आर्मेनिया और ओटोमन मर्चेंट्स तक स्थापित हो चुका था जिससे राज्य की आमदनी भी बढ़ना शुरू हुई।
औरंगजेब की विस्तारवादी नीतियां और कट्टर धार्मिकता के चलते यह मुगल राजपूत गठबंधन आखिरकार सत्रहवी सदी के दूसरे पड़ाव में कमजोर पड़ने लगा।
एक वाटरशेड मोमेंट के रूप में मुगल – राठौड़ युद्ध ने एक बार फिर से क्षत्रियों के रूरल इलाकों में स्थापित प्रभुत्व को reassert किया तथा साथ ही यह भी दर्शाया की जरूरत पड़ने पर राजपूत मुगलों से लंबे समय तक सीधा मुकाबला करने में सक्षम थे। संधियां केवल उसी लेवल तक प्रभावी थी जब तक राजपूत स्वाभिमान और प्रजा पर कोई आंच ना आए।
आलमगीर ने जाने अनजाने में इस एसेंशियल क्लॉज का उल्लंघन किया जिसका खामियाजा उसे अपने राज्य की बलि देकर चुकाना पड़ा।
अतः क्षत्रिय विरोधियों द्वारा दिया गया यह तर्क की राजपूतों पर ये संधियां थोपी गई थी सरासर बचकाना है। संधियां हर एस्पेक्ट और हालात को मद्देनजर रखते हुए की गई थी। इस एलायंस का प्राइम ऑब्जेक्टिव क्षत्रियों के राज्यों की प्रजा की perpetuity में सुरक्षा तथा राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता लाना था जिसमे काफी हद तक यह सफल भी रहा।
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