जय हो सूर्यवंशी क्षत्रिय महाराजा अजयपाल देव चौहान जी की
उत्तर पश्चिमी भारतवर्ष व अजमेर क्षेत्र पर लंबे समय तक चौहान राजपूत राजवंश का शासन रहा । सन् 1110 से 1135 तक अजमेर पर महाराजा अजयपाल देव जी का शासन काल रहा, अजय पाल देव जी ने अपने जीवित रहते ही अजमेर का शासन अपने उत्तराधिकारी अर्णोराज को सौंपकर, पुष्कर व अजमेर के बीच अजयसर नामक स्थान पर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत करने लगे। यह अजय पाल देव जी दिल्ली पति क्षत्रिय सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पड़दादोसा थे । क्षत्रिय (राजपूत) समाज मे इनकी बहुत मान्यता है ..
पुष्कर के आस-पास उस समय अनेक उच्च कोटि के संत तपस्या करते थे । सहज रहकर ईश्वर साधना करना क्षत्रिय पद्धति है । अजयपालदेव जी भी उसी का अनुसरण करते हुए सहज रूप से रहते हुए संतों के सानिध्य में रहकर तपस्या में लीन रहने लगे ।
इससे पूर्व अपने शासनकाल में अजयपाल देव जी ने अपने राज्य का मालवा, कच्छ, काठियावाड़ साम्राज्य विस्तार किया व उस समय प्रबल शक्ति के रूप में भारत वर्ष पर आक्रमण करने वाले यवन आतताईयो का दमन किया। अनेक युद्धों में उनको परास्त कर भगाया । इतिहास के कुछ स्रोतों का जनस्त्रोतों के अनुसार एक समय जब अजय पाल जी तपस्यारत थे तब कुछ गोपालक व चरवाहों ने रक्षार्थ पुकार लगाई कि उनके गोधन को यवन आक्रांता लूटकर ले जा रहे हैं, यह पुकार सुनकर अजयपालदेव जी ने पाया कि बहुत अधिक संख्या में शत्रुदल गायों को ले जा रहा है । ऐसा मानना है कि अजयपाल जी ने यह विचार किया कि मृत्यु निश्चित है यवनों के हाथों मरने से अच्छा है कि अपने आराध्य भगवान अजगंधेश्वर महादेव को अपना शीश समर्पित कर उनसे युद्ध करें। ऐसा सोच कर अजयपाल देव जी ने अपना शीश काटकर अजगंधेश्वर महादेव जी को समर्पित कर दिया और युद्ध करते हुए अंजार (गुजरात)तक चले गए व यवनो का संहार कर उनका धड़ अन्जार मे शान्त हुआ । यह स्थान अजयसर से लगभग 800 किलोमीटर दूरी पर है ।
अजयसर मे जहाँ उनका शीश अजगंधेश्ववर महादेव जी को समर्पित किया वहाॅ उनका मंदिर बना है व पूजा होती हे और मेला लगता है साथ ही साथ जहां अंजार में धड़ गिरा वहां भी उनका मंदिर बना है व पूजा स्थान है स्थान है और मेला लगता है 800 किलोमीटर तक बिना माथे के लड़ने की यह घटना संसार भर में अचंभित कर देने वाली लेकिन पूर्णता सत्य घटना है।
अंजार में अजयपालदेव जी अंजार धणी के रूप में पूजे जाते हैं व यह मान्यता है कि सात तरह के ज्वर (बुखार) अजयपालदेव जी के स्मरण मात्र से दूर हो जाते हैं । ऐतिहासिक स्त्रोतो से पता चलता है कि अजयपालजी के समकालीन राजा विपत्ति काल मे अजयपालदेव जी नाम स्मरण करते थे। संसार का पहला उदाहरण हे कि सन्यासरत रहते हुए भी गोधन व मातृभूमि की रक्षार्थ उन्होंने क्षात्रधर्म का पालन कर युध्द किया। तंवर क्षत्रिय वंश के महानसन्त रामसापीर (रामदेवजी) के दादोसा राजऋषि रणसीजी के गुरु अजयपालदेव जी थे । राज ऋषि रणसीजी भी अजमाल जी व रामदेव जी की तरह (लगातार तीन पीढ़ियां) महान संत हुए हैं । नरेना में रणसीजी की समाधि मंदिर है । यद्यपि शकुन विद्या अब प्रायः नष्ट हो चुकी है किंतु कुछ लोग ही इस विद्या के जानकार बचे हैं उनका कथन है कि पक्षी अजयपालदेव जी की आण (शपथ) आज भी मानते हैं शकुन शास्त्रियों का कहना है कि कठिन विषयों पर जैसे किसी की मृत्यु अथवा अध्यात्मिक विषय में सकून लेना हो तो दुष्ट शक्तियां पक्षियों से गलत शकुन दिला देती है लेकिन अजयपालदेव जी की आण (शपथ) दिलाकर दुबारा शकून लिया जाए तो सही शकुन प्राप्त होता है ।
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